चुनाव आयोग ने हाल ही में राजनीतिक दलों के समक्ष रिमोट वोटिंग मशीन के इस्तेमाल का प्रस्ताव रखा था। यदि यह प्रस्ताव मान लिया गया होता तो उसके जरिए वैसे मतदातागण भी चुनाव में मतदान कर पाते जो अपने गृह राज्य से बाहर रह रहे हैं। पर राजनीतिक दलों ने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
इस देश की मतदाता सूचियों में नाम रहने के बावजूद लगभग 30 करोड़ मतदाता मतदान नहीं कर पाते, क्योंकि वे अपने घरों से दूर रहते हैं। उनमें से कुछ तो पोस्टल बैलेट के जरिए मतदान करते हैं, पर सारे मतदाता नहीं।
यह पहली घटना नहीं है जब चुनाव सुधार का विरोध हुआ है। 90 के दशक में तत्कालीन चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने मतदाता पहचान पत्र का प्रस्ताव किया, तो भी कई राजनीतिक दलों ने उसका सख्त विरोध किया। पर जब शेषन ने धमकी दी कि हम पहचान पत्र के बिना चुनाव की तारीख की घोषणा ही नहीं करेंगे। तब मजबूरी में राजनीतिक दल मान गए।
2002 में चुनाव आयोग ने प्रस्ताव किया कि उम्मीदवार अपने शैक्षणिक योग्यता, संपत्ति और आपराधिक रिकॉर्ड का विवरण नामांकन पत्र के साथ ही दे। इस पर तत्कालीन केंद्र सरकार ने उसका कड़ा विरोध कर दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कड़ा आदेश देकर उसे लागू करवा दी।
दशकों से मांग हो रही है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक ही साथ हो। वर्ष 1967 तक दोनों चुनाव एक ही साथ होते थे। पर अब राजनीतिक दल उसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। उम्मीदवार एक से अधिक सीटों से चुनाव नहीं लड़े, व्यवस्था भी होनी चाहिए, पर नहीं हो रही है।
हाल ही में खबर आई थी कि 80 साल या उससे अधिक उम्र के मतदाताओं के लिए उनके घरों से ही मतदान करने की सुविधा प्रदान की जा सकती है। यह सुविधा वैसे बुजुर्ग मतदाताओं को दी जानी थी जो स्वास्थ्य या अधिक उम्र के कारण मतदान केंद्रों पर जाने की स्थिति में नहीं है। लेकिन इस प्रस्ताव का भी कुछ नहीं हुआ।
दरअसल कई राजनीतिक दल वैसे किसी भी प्रस्ताव का विरोध कर देते हैं, जिससे मतदान का प्रतिशत बढ़े। मतदान का प्रतिशत बढ़ने से चुनावों में किसी भी वोट बैंक की भूमिका निर्णायक नहीं रह पाती। इसीलिए अनिवार्य मतदान के प्रस्ताव का अब तक अधिकतर राजनीतिक दलों ने विरोध किया है।
एक बार यह प्रस्ताव आया था कि जो व्यक्ति लगातार तीन चुनाव में मतदान ना करें उसे कुछ सरकारी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाए। आज की राजनीति ऐसे नए विचारों के पक्ष में नहीं है। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं होगा कि राजनीतिक दल इन सभी प्रस्ताव को नामंजूर कर दें।
इस तरह के अन्य अनेक चुनाव सुधारों को अधिकतर राजनीतिक दलों ने रोक रखा है। इसे लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए शुभ नहीं माना जा रहा है।
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